कोहबर की शर्त' - केशव प्रसाद मिश्र
'कोहबर की शर्त' एक ऐसा उपन्यास जिस पर दो-दो फिल्में बन चुकी हैं और दोनों बेहतरीन।'नदिया के पार' फिल्म कितनी बार देखा है मुझे खुद याद नहीं।ग्रामीण पृष्ठभूमि पर आधारित इस फिल्म की कहानी,अभिनय और गीत..सब एक से बढ़कर एक।'कवने दिशा में ले के चला रे बटोहिया' गीत तो बचपन से आज तक जुबान पर बार-बार आता रहा।यही फिल्म फिर नये रूप में "हम आपके हैं कौन" के रूप में सामने आई।कहानी,गीत व अभिनय नें फिर से सभी को मुग्ध करके रख दिया।
तीन-चार दिन पहले इस लाजवाब पुस्तक की तलाश पूरी हुई।और आज इसे पढ़कर समाप्त किया है।केशव प्रसाद मिश्र जी के इस उपन्यास को पढ़ना दर्द,दुख,पीडा़ के संगम की अनुभूति से बार-बार गुजरने जैसा है।सुख-दुख के धरातल पर लिखी ये 150 से भी कम पृष्ठों की पुस्तक थोड़ा बहुत हँसाती है,लेकिन दुख के असीम महाद्वीप में छोड़ जाती है।उपन्यास की कहानी फिल्म से बिल्कुल अलग है।वही ओंकार,वही रुपा,वही गुंजा,वही चंदन..सारे पात्र,सारे स्थान वही जो 'नदिया के पार' में दिखते हैं,लेकिन कहानी बिल्कुल अलग।उपन्यास पर बनी दोनों फिल्मों का समापन सुखांत है,लेकिन पुस्तक कोहबर की शर्त का अंत दुखांत नहीं..पूरी किताब ही दुखों की अंतहीन गाथा है।ओंकार व रूपा की शादी तक सब ठीक लगता है।विवाह की रात कोहबर में गुंजा व चंदन में एक शर्त लगती है,चंदन शर्त हार जाता है।पूछता है कि क्या दंड भोगना है,और गुंजा कहती है अवसर आने पर बताऊँगी।शादी के बाद रूपा का बलिहार आना,जैसे ओंकार व परिवार के जीवन में बहार का आगमन था।गुंजा का अपनी बहन के घर आना चंदन के जीवन में बसंतोत्सव जैसा था।लेकिन ये बसंत ज्यादा दिन टिक न सका।चार दिनों के बसंत के झोंके के बाद ,पतझड़ का ऐसा अंतहीन सिलसिला चला कि सब कुछ उजड़ता ही चला गया।पहले काका अजोर तिवारी की मौत,फिर दूसरे बच्चे के जन्म के समय रूपा की मृत्यु।रूपा की मृत्यु के बाद चंदन के देखते-देखते ही गुंजा का ओंकार से विवाह।सामाजिक मान-मर्यादाओं व परिस्थिति के शिकार चंदन व गुंजा को देवर-भाभी के रूप में देख दिल में अजीब सी टीस उठती है।कुछ जीवन अभिशापित होते हैं,जैसे गुंजा व चंदन...हर ख्वाहिश दर्द का सैलाब लाती है और सब कुछ बहा ले जाती है।बलिहार में फैली महामारी में बलिहार के बहुत से लोगों के साथ ही ओंकार का काल कवलित होना दिल को बैठा देता है।फिर आगे की जिंदगी का हर पल ऐसा लगता है जैसे तूफान में नाव का भविष्य।चंदन व गुंजा का संवाद बहुत देर तक मनोमस्तिष्क में घूमता रहता है-
"भूल गये क्या,चंदन।"
"नहीं,याद है गुंजा,और यह भी याद है कि उसी रात तुमने एक शर्त भी बदी थी,लेकिन शर्त क्या थी,आज तक मेरी समझ में नहीं आया।"
गुंजा की आँखों की कोरों से फिर टप्-टप् आँसू गिरने लगे।चंदन के मुँह पर निगाह गडा़ जैसे कहीं दूर देखती हुई जोर लगाकर साँस खींचकर बोली," अच्छा ही हुआ चन्दन जो नहीं समझे,वह तो ऐसी शर्त थी,जिसमें हम दोनों ही हार गये।"
चौबेछपरा व बलिहार गाँव के दुर्भाग्य की कहानी गुंजा की मौत पर अपने चरम पर पहुँच जाती है।दर्द व पीड़ा की इंतिहा..कुँवारी गुंजा,सुहागिन गुंजा,विधवा गुंजा और कफन ओढ़े गुंजा..सबको देखता,धैर्य के साथ पुनः आगे के लिए तैयार चंदन।अविस्मरणीय उपन्यास।
समीक्षा - तारकेश्वर राय