"आवा चली महुआ बीनै"

_____________________ इधर अप्रैल शुरू होते ही चैत की कटिया शुरू हो जाती। उधर महुआ भी चूना शुरू। तो सरसों, चना, मटर, अरहर, अलसी और गेहूं की कटाई-दौंराही-मड़ाई सब घर के बड़े लोगों के ज़िम्मे लेकिन महुआ बीनने का काम हम बच्चों के हिस्से आता। तो फिर भइया लो मजा! संझा से ही प्लानिंग हो जाती। कौन कहाँ, किस पेड़ का महुआ बीनेगा, तय हो जाता। जैसे गाँव में देसी आमों की अलग-अलग वेराइटी, शेप-साइज़, टेस्ट और ख़ुश्बू होती है- वैसे ही महुए की भी अलग-अलग किस्म। हम सब हर पेड़ का महुआ पहचानते। किसी पेड़ का फूल छोटा होता ज़्यादा पीला पन लिए, तो कोई देखने में थोड़ा लंबापन लिए-अंडाकार और रंग चटख सफ़ेदी लिए हुए। महुआ आधी रात से ही, या कहिये सुकऊव्वा तरई के उगने (शुक्र तारा इन्फैक्ट ग्रह जिसे मॉर्निंग स्टार भी कहते हैं-के उदय होने के समय से ही) के साथ ही चूने लगते और लगभग 1 घंटा दिन चढ़ने तक गिरते। छोटे साइज़ वाले ऐसे गिरते- टिप्प टिप्प और बड़े वाले- टप्प टप्प कुछ पानी में भी गिरते - डुब्ब डुब्ब...बुड़ुक बुड़ुक महुआ चूने के पहले ही लोग अपने-अपने हीसा (हिस्से) वाले पेड़ के नीचे उगी हुई घास-झाड़-झाड़ी-झंखाड़ सब साफ कर देते। जमीन बिलकुल चिक्कन। अगले दिन मुँह अन्हियारे ही हम लोग गोल बनाकर पेड़ के नीचे पहुँच जाते। बाग़ में, महुआ के पेड़ के नीचे पहुँचते ही उसकी फूलों की सुगंध से एक मादकता छा जाती। नथुने फड़कते रहते। ज़मीन पर गिरे महुए और पेड़ पर भी लगे अधपके फूलों पर भौंरें, मधुमक्खियां, हाँड़ा-हांड़ी (बर्र और ततैया) और चीटियां भी चिपके रहते। लेकिन कोई किसी के काम में बाधा न पहुंचाता। ये सब निर्विकार भाव से रस चूसते रहते और हम लोग भी निस्पृह भाव से महुआ बीनते रहते। अपना-अपना पँहटा तय कर लिया जाता। सब लोग लाइन से उंकडूँ बैठ जाते और दोनों तरफ जहाँ तक हाथ पहुँचता, बीनते हुए आगे की तरफ खिसकते जाते। अक्सर हममें से ही कोई दहपेल और शरीर से तग्गड़ सदस्य चिल्ला कर कहता, 'अगर केव हमरे पँहटा के सामने आइ गय तव वोका आज लतनौ - मुकनौ सहिन कइ देब' (अगर कोई हमारे सामने वाली लाइन/पंक्ति में आ गया तो आज उसको लात-घूंसे से मार कर सही कर दूंगा/दूंगी) कभी - कभी कोई उजड्ड सदस्य अपना महुआ किसी दूसरे सदस्य के ढेर में जान बूझ कर मिला देता जिससे वापस निकालने में ज़्यादा महुआ निकाल ले। इसका प्रतिकार कोई दूसरा ज़्यादा उजड्ड सदस्य ऐसे करता, 'अब्बै यही चप्पलवा से तोहार मुहा पाथि डारब' (अभी इसी चप्पल से मार-मार कर तुम्हारा मुँह फ्लैट कर दूंगा/दूंगी) खूब करकच होता। पूरा कौव्वारोर.... ख़ैर, फिर कोई सदस्य बीच-बचाव करता और दुबारा कार्यक्रम शुरू होता। महुआ के रस से हाथ लस-लसा जाता। अब बच्चों का एक समूह कम समय में ज़्यादा महुआ बीन लेता, दूसरा समूह थोड़ा सुस्ताने लगता। तो जिसका महुआ कम होता वो मन ही मन योजना बनाता कि कैसे और कब इनका महुआ चुराना है। तो यह पवित्र कार्य अक्सर रात में किया जाता। रात में या कभी खड़ी दुपहरिया में सही मौका ताड़ कर किसी दूसरे के सूखते हुए महुआ के ढेर में से रात में एक-दो अंजुरी महुआ चुरा लिया जाता। बस यह ध्यान रखना होता कि जो महुआ चुरा रहे हैं वो किस किस्म का महुआ है, उसे चुराकर उसी की किस्म वाले ढेर में रखना होता, नहीं तो लोग तुरंत जान जाते। महुआ बीन कर, उसे धूप में सुखाने पर उसका वजन जितना कम होता जाता, हम लोगों का दिल उतना ही बैठता जाता। क्योंकि महुए के वजन से ही उसकी कीमत तय होनी थी। खैर, मई-जून में जब महुए का भाव थोड़ा-बहुत चढ़ता तो उसे बेंचने की प्रक्रिया शुरू होती। असल में वह केवल महुआ बीनना ही नहीं था, वह हम लोगों की एक छोटी सी कमाई थी जिससे कि हम कोई छोटी-मोटी ज़रूरत पूरी करते। मैंने भी एक बार महुआ बीन कर उसे बेंच कर मिले पैसे से एक सैंडल खरीदी थी। बड़े होने पर हममें से सभी ने कुछ न कुछ कमाना शुरू किया ही होगा। लेकिन उस कमाई से हमने जो भी चीज़ खरीदी होगी या अगर उससे मिले पैसे से कुछ खाया-पिया होगा तो वो कभी नहीं भूल सकते। आज भी अप्रैल के इसी सीज़न में चलते-फिरते किसी महुआरी (महुआ के बाग़-बगीचे) से गुजरने पर महुए की खुश्बू से दिल-दिमाग़ तारो ताज़ा हो जाता है और आँखों में एक मादक चमक तैर जाती है। तस्वीर के मौलिक अधिकारी को धन्यवाद साभार Prashant Dwivedi जी

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