October Junction- Divya Prakash Dubey



▪एक उदास कहानी
बनारस कभी सोता नहीं। लेकिन, अक्टूबर जंक्शन में कथा का नायक सदा के लिए सो जाता है। नये जमाने में ‘गुनाहों का देवता’ की कथा कैसी होगी,उसकी कार्बन काॅपी है ‘‘अक्टूबर जंक्शन’’। लेकिन कथा में मुहब्बत की वो तासीर नहीं है,जो गुनाहों का देवता में है। कहीं भी मुहब्बत का दर्द नहीं छलकता। अलबता कामूकता के लिबास में लिपटे कई पन्ने हैं। पूरी कथा में लेखक ने न कथा के नायक के मन में और न ही नायिका के मन में, मुहब्बत का नर्म एहसास कराया। लेकिन 150 पेज की कथा में नायक की जिन्दगी के ऐसे पन्ने है,जो पाठक को बेचैन करते हैं। गुस्सा दिलाते है। उसका मन करता है कि दिव्य प्रकाश को फोन लगाकर बोले कि, कौन सी फिलासफी लिखी है। बहुत सारे पाठक इस किताब को अधा पढ़कर छोड़ भी सकते हैं। जो पढ़ लेंगे, वो दिव्य प्रकाश को बहुत अच्छा बोलने की गुस्ताखी नहीं करेंगे।

दिव्य प्रकाश स्वयं कहानी के अंत में स्वीकारते हैं कि, लेखक नहीं चाहता कि कुछ कहानियां पूरी हो। इसलिए कि कहानियां पूरी होने पर दिल दिमाग उंगलियों से हट जाती है। वे मानते हैं कि, अधूरी कहानियांँ होने से पाठक और लेखक की उंगलियाँं उसे बार बार छूती हैं। उदासियों के लिहाफ को कौन छूता है भाई? उदास कर देने वाली यह एक ऐसी किताब है जिसमें, 80 पेज पढ़ने के बाद पाठक यह समझता है कि, इस कहानी का अंत ऐसा कुछ होगा। लेकिन जबरिया कहानी को धर्मवीर भारती के गुनाहों का देवता की कार्बन काॅपी बना देने से हैरानी होती है।

धर्मवीर भारती में सुधा और चंदर नहीं मिल पाते। सुधा मर जाती है। अक्टूबर जंक्शन में कथा का नायक सुदीप मर जाता है और चित्रा उसकी पत्नी बनते बनते रह जाती है। दोनों के बीच मुहब्बत की खुशबू नहीं है, मन की चाहत भी नहीं है। फकत देह का आकर्षण है। चूंकि कहानी नये जमाने की है, जाहिर सी बात है कि, कथा का नायक सुदीप और नायिक चित्रा पाठक दोनों को देह कीे मुहब्बत से इतराज नहीं है। क्यों कि, चित्रा नये जमाने की लड़की है। उसके भी शरीर की अपनी जरूरतें है,जो किसी के भी साथ सोकर पूरा कर लेती है। और सफलता की सीढ़ी पर चढ़ने के लिए सब कुछ करने में माहिर है। चित्रा तलाकशुदा है। चित्रा की मुलाकात बनारस में सुदीप से होती है। दोनों एक दूसरे से अपरिचित हैं। सुदीप पैसे वाला है। एक कंपनी में उसका अपना शेयर है। अखबारों के लिए लिखता भी है। आज कल के लड़के जैसे होते हैं,उससे जुदा नहीं है। सुदीप से मुलाकात के दौरान चित्रा बताती है कि वो एक कहानी की तलाश में है।

अक्टूबर जंक्शन को पढ़ने से यही लगता है कि, लेखक इसका नाम दिल्ली जंक्शन,बनारस घाट या फिर मुंबई जक्शन भी रख देते, तो कोई फर्क न पड़ता। इसमें हर बात एक साल बाद अक्टूबर में ही होती है। इस कहानी को पढ़ते पढ़ते यही लगता है कि, लेखक जिन जिन शहरों में गए, जिनसे मिले,उनसे बातें क्या हुई,उसे कहानी में उतार दिया हैं। लेखन में प्रवाह है। टूटन नहीं है। भाषा शैली कई जगह मोहक है। जिस तरह चित्रा कहानी तलाश रही है,उसी तरह पाठक भी पढ़ते वक्त तलाशेगा कि इस किताब की कहानी क्या है? इस किताब में खुली कामुकता और सौन्दर्य है।

नये जमाने के कथाकार अपने तरीके से अफसाने गढ़ते हैं। लेकिन ऐसा बहुत कम होता है कि, उनकी कथा नई हो। पुरानी बोतल में नई शराब की परिपाटी से आज के कई कथाकार निकलना ही नहीं चाहते। चोरी चोरी फिल्म और दिल है कि, मानता नहीं,दोनों की पटकथा एक सी है। सिर्फ फिल्मांकन नए तरीके से किया गया है। दिव्य प्रकाश दुबे की अक्टूबर जंक्शन की कथा डाॅ धर्म भारतीय की गुनाहों का देवता का बदला स्वरूप है। कहानी बनारस से शुरू होती है, और बनारस में ही खत्म हो जाती है।

चित्रा कहानी तलाश रही है बनारस में। सुदीप से मुलाकात होती है। मुलाकात दोस्ती में बदल जाती है। सुदीप से प्यार करती है भी, और नहीं भी। सुदीप उसे बताता है कि, उसकी एक गर्ल फ्रेंड है सुनयना। वो उसी से शादी करेगा। बावजूद इसके सुदीप और चित्रा दोनों दैहिक प्यार पति पत्नी की तरह करते हैं। सुदीप की चित्रा के प्रति दिलचस्पी क्यों है,लेखक यह कहीं भी नहीं बताया। फिर भी उसके लिए वो हवाई जहाज की टिकट बुक कराते रहता है। उसकी इच्छा होती है, उससे मिलने की या फिर चाहता है कि, वो उससे मिले, तो उसके लिए हवाई जहाज का टिकट बुक करा देता है। चित्रा आर्थिक रूप से कमजोर है, यह बताने के बाद भी सुदीप उसकी मदद नहीं करता। वो दूसरों के लिए घोस्ट राइटिंग करती है। सुदीप उससे साल दर साल पूछता है तुम्हारी किताब जब आए तो मुझे जरूर देना। जब उसकी किताब आती है,तब सुदीप दुनिया से जा चुका होता है।
@रमेश कुमार "रिपु"

अक्टूबर जंक्शन - दिव्य प्रकाश दुबे
प्रकाशक - हिन्द युग्म
कीमत - 125 रूपये

 

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