October Junction- Divya Prakash Dubey
समीक्षा - रमेश कुमार रिपू ▪एक उदास कहानी बनारस कभी सोता नहीं। लेकिन, अक्टूबर जंक्शन में कथा का नायक सदा के लिए सो जाता है। नये जमाने में ‘गुनाहों का देवता’ की कथा कैसी होगी,उसकी कार्बन काॅपी है ‘‘अक्टूबर जंक्शन’’। लेकिन कथा में मुहब्बत की वो तासीर नहीं है,जो गुनाहों का देवता में है। कहीं भी मुहब्बत का दर्द नहीं छलकता। अलबता कामूकता के लिबास में लिपटे कई पन्ने हैं। पूरी कथा में लेखक ने न कथा के नायक के मन में और न ही नायिका के मन में, मुहब्बत का नर्म एहसास कराया। लेकिन 150 पेज की कथा में नायक की जिन्दगी के ऐसे पन्ने है,जो पाठक को बेचैन करते हैं। गुस्सा दिलाते है। उसका मन करता है कि दिव्य प्रकाश को फोन लगाकर बोले कि, कौन सी फिलासफी लिखी है। बहुत सारे पाठक इस किताब को अधा पढ़कर छोड़ भी सकते हैं। जो पढ़ लेंगे, वो दिव्य प्रकाश को बहुत अच्छा बोलने की गुस्ताखी नहीं करेंगे। दिव्य प्रकाश स्वयं कहानी के अंत में स्वीकारते हैं कि, लेखक नहीं चाहता कि कुछ कहानियां पूरी हो। इसलिए कि कहानियां पूरी होने पर दिल दिमाग उंगलियों से हट जाती है। वे मानते हैं कि, अधूरी कहानियांँ होने से पाठक और लेखक की उंगल...