बुद्धिज्म ही भारतीय संस्कृति की मुख्य लोकधारा -- भाग 1 लेखक--संदीप जावले

बुद्धिज्म ही भारतीय संस्कृति की मुख्य लोकधारा -- भाग 1

लेखक--संदीप जावले
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मानव जीवन को सुखी व संपन्न बनाने के लिए स्वतंत्रता, समता, बंधुत्व,न्याय, नीति, वैज्ञानिकता, नैतिकता इत्यादि मूल्यों की नितांत आवश्यकता है इस पर आज करीब करीब सभी लोगों को विश्वास हो गया है इन मानवीय मूल्यों से परिपूर्ण विचारधारा और इस विचारधारा से ओत-प्रोत संस्कृति ही मानव विकास के मार्ग के क्रियाकलाप की  सतत मुख्यधारा रही है।
आज मानव समाज का जो कुछ भी विकास हुआ दिख रहा है वह इसी विचारधारा के कारण घटित हुआ है यही वस्तुस्थिति है,इन मानवीय मूल्यों व विचारधारा पर सतत  बारंबार आक्रमण व आघात होते आया है फिर भी समाज में इन्हीं मूल्यों को स्थापित करने का सतत प्रयास करना आवश्यक है यह स्पष्ट है।
वास्तव में ऐसे प्रयत्न पूर्वकाल से ही किए जा रहे हैं अथवा भारत में ऐसे प्रयत्नों की भव्य परंपरा रही है,आज जो लोग स्वतंत्रता,समता, बंधुत्व,न्याय, नैतिकता, वैज्ञानिकता आदि मूल्यों का उद्घोष करते हैं, मानव जीवन के चतुर्मुखी उत्थान के लिए यही मूल्य आवश्यक हैं ऐसा मानते हैं और इन मूल्यों पर आधारित समाज अस्तित्व में आये इसके लिए प्रयासरत हैं उन लोगों के प्रयत्नों परंपराओं  की स्वाभाविक नैसर्गिक विरासत का ही नाम है *--"बौद्ध धम्म"!*
अब प्रश्न यह है कि आज इन सभी प्रगतिशील मूल्यों का समर्थन करने वाले लोग इन्हीं मूल्यों का समर्थन करने वाले बौद्ध धम्म को अपनी खुद की विरासत और अपनी खुद की परंपरा मानते हैं क्या?
इस प्रश्न का उत्तर "नहीं" ऐसा है। उल्टे वे खुद की पहचान "हिन्दू" ऐसा ही बताते हैं।(और हिन्दू कहे जाने वाले हिंदुत्ववादियों जैसे कट्टर सक्रिय/उन्मादी नहीं हुए तो भी निष्क्रिय ऐसा छुपा अभिमान भी प्रर्दशित करते हैं!)
हजार पांच सौ साल पहले कुछ विदेशी यहां आये उन्होंने यहां के निवासियों को हिन्दू कहना शुरू किया और यहां के लोग खुद को 'हिन्दू' समझने लगे? सब-कुछ अनाकलनीय और अपने स्वत्व को गिरवी रखने जैसा है।
मेरी *'हिन्दू' एक भूल-भुलैया'(मराठी)* यह पुस्तक कुछ दिन पहले प्रकाशित हुई, उसे पाठकों की तरफ से अच्छा प्रतिसाद मिला,इस पुस्तक पर आने वाली प्रतिक्रियाओं के आधार पर मुझे यह महसूस हुआ कि करीब करीब सभी हिन्दू अपना धर्म (यानी हिन्दू धर्म) अत्यंत प्राचीन उदात्त वगैरह होने की गलतफहमी पाले हुए हैं, यह गलतफहमी उनकी हड्डियों में घुसी हुई है।
वास्तव में बौद्ध धम्म को नष्ट करने की प्रक्रिया में से ही हिन्दू धर्म का निर्माण हुआ इस इतिहाससिद्ध सत्य से कोई भी इनकार नहीं कर सकता  इसे अनदेखा  भी नहीं किया जा सकता और दबाया भी नहीं जा सकता, इतना वह सुस्पष्ट है किन्तु इतना स्पष्ट सत्य भी किसी को नहीं दिखाई पड़ रहा है या जिन गिने चुने लोगों को दिखाई पड़ने लगा है उसे उन्हें दूसरों को दिखाना नहीं है ऐसी परिस्थिति में जो थोड़े बहुत क्रांतिकारी प्रवृत्ति के कुछ लोग यह सत्य समाज के सामने निर्भीकता पूर्वक रखते हैं उन्हें कुछ ज्यादा प्रतिसाद नहीं मिलता ,ऐसी आज की परिस्थिति है। आंख पर चादर ओढ़ कर सोए हिन्दूधर्मियों को यह वास्तविक सत्य चित्र देखना ही नहीं है और हिन्दू धर्म ही सबसे  प्राचीन, सर्वसमावेशी,सहिष्णु, उच्च-उदात्त आदि आदि होने की गलतफहमी से कुछ भी कर लो बाहर निकलना ही नहीं है, वृत्ति से धार्मिक होना और पठन/चिंतन से ज्यादा संबंध न रखने वालों की बात अलग है परन्तु खुद को सेकुलर व प्रगतिशील समझने वाले लोगों की भी धार्मिक सांस्कृतिक निष्ठा "हिन्दू" नाम की संकल्पना से मजबूती से जुड़ी होने की प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है ,वे कुछ भी सुनने को तैयार ही नहीं हैं वे हिन्दू धर्म के ग्रेट होने की गलतफहमी से भरे हुए हैं। इस गलतफहमी के कारण सर्वप्रथम वे श्रद्धा में और बाद में सीधे सीधे अंधश्रद्धा में डूबे हुए नजर आते हैं,उनकी अंधश्रद्धा का असर बारंबार दिखाई पड़ता है।
स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी,डा.राधाकृष्णन, विनोबा भावे जैसे अनेक लोगों ने हिन्दू धर्म के बारे में खूब लेखन किया है और हिन्दू धर्म पर भरपूर अभिमान भी दिखाया है , बीते सौ सवा सौ सालों में इन लोगों द्वारा हिन्दू धर्म के विषय में की गई उदात्त पूर्ण विवेचना का कल और आज की पीढ़ी पर गहरा प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है उनके विवेचना को सत्य मानकर ही कल और आज की पीढ़ी हिन्दू धर्म पर अभिमान करती हुई दिखाई पड़ती है आज की पीढ़ी को इस अभिमान को अपनी विवेचना द्वारा प्रतिष्ठित करने वाले उपरोक्त महानुभावों का स्मरण ही नहीं है यह भूल जानबूझकर या अनजाने में भी हो सकती है लेकिन विस्मृत किया गया है यह निश्चित है। उन्हें हिन्दू धर्म में अभिमान करने योग्य बातों का मूल स्रोत क्या है?
इसका इस मंडली ने विचार ही नहीं किया अथवा गहराई से विचार किया भी हो तो प्रमाणिकता पूर्वक तटस्थ पूर्ण तरीके से विचार न किया हो अथवा हो सकता है किया भी हो तो इस स्वाभाविक प्रक्रिया का जो निष्कर्ष निकलता है उसकी तरफ से आंख कान बंद करने की कृतघ्न पूर्ण भूमिका अपनाई हो, ऐसी अनेक संभावनाएं हैं।
उदा. महात्मा गांधी ने जीवन भर सत्य व अहिंसा इन जीवन मूल्यों का समर्थन व प्रचार किया ,इन मूल्यों के इतिहास का निरीक्षण करते हैं तो क्या मिलता है? वस्तुस्थिति ऐसी है कि जिन मूल्यों का गांधीजी ने उदघोष किया  उन मूल्यों का उनके द्वारा अभिमान किए जाने वाले हिन्दू धर्म में कहीं अता-पता ही नहीं है उन्होंने निरंतर चतुर्वर्ण पर आधारित हिन्दू धर्म का महिमा मंडन किया,इस धर्म में सत्य और अहिंसा कहीं भी नहीं आता।
वेद-वेदांत  जो हिन्दू धर्म के मौलिक ग्रंथ हैं उनमें भी ये मूल्य कहीं नहीं मिलते ।
इतना ही नहीं हिन्दू धर्म का ग्रंथ मानी जाने वाली भगवद्गीता और सैकड़ों वर्षों से हिन्दू धर्म ग्रंथ मानी जाने वाली मनु-स्मृति में भी सत्य अहिंसा का उल्लेख कहीं नहीं मिलता ।
*उल्टे बौद्ध धर्म की निर्माण प्रक्रिया में गांधीजी के सत्य और अहिंसा की जड़ मिलती है!*
गौतम बुद्ध को तथागत कहा जाता है तथागत मतलब यथार्थ ज्ञान जानने वाला , तथागत मतलब तथ्य जानने वाला,तथ्य की तरफ जाने वाला, यानी जैसी वस्तुस्थिति है उसे उसी स्वरूप में जानने वाला! तथागत मतलब सतत सत्य की खोज करने वाला और सत्य स्वीकार करनेवाला! सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में भूतकाल में इस प्रकार की व्याख्या किसी और ने किया हो ऐसा दिखाई नहीं पड़ता अथवा किसी और को इस प्रकार के विशेषण से संबोधित किया गया हो ऐसा उदाहरण नहीं मिलता।
बुद्ध मतलब सत्य और सत्य मतलब बुद्ध ऐसी दोहरी व्याख्या कर सकते हैं इतना अद्वैत बुद्ध और सत्य में है !(फिर भी मैं कहता हूं इसलिए मेरे विचार मत मानो! प्रत्येक जन अपनी बुद्धि विवेक से विचार करें योग्य हो तभी मानें ! ऐसा बुद्ध कहते हैं)!
श्रद्धा , अंधश्रद्धा, विश्वास, अंधविश्वास, मान्यता, परंपरा, भ्रम, शब्दों की प्रामाणिकता ये सत्य के प्रकाश में और कार्यकरण भाव की कसौटी पर जांच लेना चाहिए ,यह उनकी भूमिका थी।यह भूमिका सत्य की (यानी विज्ञान) के कट्टर समर्थक की थी। चार्वाक को छोड़ दें तो भारत में इस भूमिका का अभाव ही दिखाई पड़ता है। बुद्ध ने अपनी भूमिका सिर्फ चर्चा एवं परिसंवाद तक ही सीमित नहीं रखी बल्कि इस भूमिका को उन्होंने धर्म यानी जीवन कर्त्तव्य बनाया। *"सत्य (विज्ञान) ही मनुष्य का धर्म है"* ऐसा उदाहरण विश्व में और कहीं नहीं मिलता। हर जगह धर्म और सत्य (विज्ञान) ये एक दूसरे के विरोध में ही खड़े हुए दिखाई पड़ते हैं यहां तक कि आज भी।
अहिंसा इस जीवन मूल्य का आग्रह भारतीय विचार विश्व और समाज जीवन में कहां से आया यह भी देखने की जरूरत है , *गौतम बुद्ध ने अहिंसा का एक धर्म मतलब कर्त्तव्य के रूप में जोरदार प्रचार किया यह सर्वश्रुत है।*
हिन्दू संस्कृति में पूज्य माने जाने वाले वेदों में अहिंसा का कोई स्थान नहीं है, उसमें हर जगह प्राणी मात्र की हिंसा, हत्या आदि का ही वर्णन और समर्थन मिलता है, उपनिषदों में व्यक्तिगत साधना (तपस्या आदि) मोक्ष,ब्रह्म,आत्मा ,परमात्मा, जैसी काल्पनिक परालौकिक बातों पर ही पूरा जोर दिया गया है, लोक जीवन में कैसे व्यवहार करें?कैसे जीवन जिएं? इसके बारे में उनमें कुछ नहीं है। भगवद्गीता ने भी  हिंसा का ही मार्गदर्शन किया है बल्कि हिंसा को आवश्यक बताया है।
यह सब वस्तुस्थिति देखते हुए सत्य का अखंड शोध करनेवाला , जीवन भर अहिंसा का प्रचार-प्रसार करनेवाला बुद्ध और उनका बौद्ध धम्म गांधीजी के अभिमान का विषय होना चाहिए था और उनकी विरासत गांधीजी को अपनी लगनी चाहिए थी परन्तु गांधीजी को ऐसा कभी लगा ही नहीं।प्रश्न यह है कि हम वास्तव में किसके वारिसदार हैं ? इस संबंध में यह वस्तुस्थिति जीवन-भर गांधीजी के ध्यान में कैसे नहीं आई ? उन्होंने अपनी पसंद के जीवन मूल्य *"सत्य- अहिंसा"* का उद्गम  हिन्दू धर्म में न होते हुए भी वैसा क्यों माना? और उस पर अभिमान क्यों प्रर्दशित किया?
गांधीजी ने सात सामाजिक पाप कर्म बताया है, मूल्यहीन राजनीति,नितिमत्ताहीन व्यापार, बिनाकष्ट संपत्ति, चरित्र रहित शिक्षा,  मानवता रहित विज्ञान, विवेकहीन सुखोपभोग और त्याग रहित भक्ति ये वे पाप कर्म हैं।
बौद्ध धम्म में  इन सातों पाप कर्मों का उल्लेख तो है ही सतत इन पाप कर्मों को टालने के लिए आह्वान किया गया है, नैतिकता, चरित्र,कष्ट से संपत्ति, विवेकपूर्ण सुख, मानवता,त्याग इत्यादि बातें बारंबार बौद्ध धम्म में उपदेशित की गई हैं वर्णाश्रम व्यवस्था पर आधारित हिन्दू- वैदिक धर्म में नहीं।
गांधीजी मुंह से कुछ भी बोले हों लेकिन उनके ऊपर किस धर्म का असर है वे किसकी विरासत चला रहे हैं यह इससे ही स्पष्ट हो जाता है परन्तु ऐसा होते हुए भी वे बौद्ध धम्म के बदले हिन्दू धर्म का और उसके वैदिक संस्कृति का गैरवाजिब अभिमान क्यों प्रर्दशित करते हैं कि जिस संस्कृति का विवेक, चरित्र, नैतिकता, वैज्ञानिकता,कष्ट से संपत्ति प्राप्त करने की प्रवृत्ति का दूर दूर तक कोई संबंध नहीं है?
यहां प्रश्न उठता है कि गांधीजी ने महत्वपूर्ण क्या माना है? ऐतिहासिक सत्य कि स्वत: के जीवन की धार्मिक- सांस्कृतिक निष्ठा? गांधीजी की निष्ठा प्रखर सत्य पर थी या सापेक्ष- सुविधाजनक सत्य पर? उन्होंने जीवन भर इतिहास सिद्ध सत्य का अनुमोदन क्यों नहीं किया?
हिन्दू धर्म का गौरव गान करने वाले स्वामी विवेकानंद , उनके द्वारा पूरी दुनिया में दिए गए भाषण उनके द्वारा लिखे गए लेखों/पत्रों आदि का अध्ययन करने पर कुछ बातें निर्विवाद व आश्चर्यजनक रूप से सामने आती है उनमें से एक तो यह है कि उन्होंने जितना हिन्दू धर्म और वेद वेदांत का गौरव गान किया उसी अनुपात में हिन्दू धर्म पर धारदार टिप्पणी भी किया उनके मन में एक तरफ वेद वेदांत तो दूसरी तरफ समता ,न्याय, नीति,नैतिकता, विवेक, सेवाभाव जैसे जीवन मूल्य थे और जब जब इन दोनों के बीच द्वंद का निर्माण हुआ उन्होंने नि: सन्देह समता, विवेक चरित्र व सेवाभाव का ही मार्ग अपनाया। अब यह स्पष्ट हो चुका है वेद वेदांत हिन्दू धर्म का आधार है और समता,न्याय,नीति, विवेक, सेवाभाव ये बौद्ध धम्म के आधार हैं फिर विवेकानंद के प्रतिपादन का आंतरिक प्रेरणास्रोत किसे माना जाय?
विवेकानंद सर्वधर्मपरिषद के लिए अमेरिका गए वहां उपस्थित लोगों को *"ब्रदर्स एंड सिस्टर्स"* कहकर संबोधित किया और उसके बाद उनके नाम की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई ।
"ब्रदर्स एंड सिस्टर्स" सहित वहां पर जो कुछ भी उन्होंने अच्छे विचार रखे उसकी प्रेरणा हिन्दू धर्म में न होकर बौद्ध धम्म में है यह स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है।
समता की बंधुत्व की अर्थात "ब्रदर्स एंड सिस्टर्स" की भूमिका को हिन्दू धर्म ने कभी नहीं अपनाया इसलिए स्वामीजी  हिन्दू धर्म के नहीं बल्कि समता व बंधुत्व की भूमिका अपनाने वाले बौद्ध धम्म के वारिस दार सिद्ध होते हैं उनके द्वारा ग्रहीत सेवाभावी वृत्ति का आग्रह हिन्दू धर्म का नहीं बल्कि बौद्ध धम्म की विरासत है।
उसके लिए प्रसंगवश वे हिन्दू धर्म का और वेद वेदांत का आधार भी नकारते हैं।
30 मई 1897 को अल्मोड़ा से अपने मित्र  प्रेमदादास को एक पत्र भेजते हैं उसमें वे लिखते हैं कि----
मुझे एक सत्य समझ में आया है वह यह कि *परोपकार ही धर्म है* विधि अनुष्ठान इत्यादि बातें सिर्फ दिखावा मात्र हैं, इतना ही नहीं स्वयं की मुक्ति की इच्छा रखना भी गलत है जो समाज के लिए सर्वस्व त्याग की भावना रखता है वही मुक्त होता है उल्टे जो लोग 'मेरी मुक्ति' 'मेरा मोक्ष' का रात दिन जाप करते हैं वे सिर्फ भटकते रहते हैं ।(इन्हीं शब्दों में बुद्ध द्वारा की गई टिप्पणी जग प्रसिद्ध है) । इस प्रकार स्वामीजी ने वेद यानी कर्मकांड और वेदांत यानी उपनिषदों को सिरे से खारिज कर दिया और बुद्ध के बताए लोक सेवा के मार्ग पर कदम बढ़ाया।
मात्र मैं हिन्दू हूं  यह समझ जन्म और परंपरा से प्राप्त होने के कारण हिन्दू होने की मानसिक विरासत By default  उनके व्यक्तित्व से चिपकी हुई थी इसलिए उसी दायरे में रहकर वे अपने विचार रखते रहे। बुद्ध के महान होने की बात उन्होंने अनेकों बार कही हैं परन्तु फिर भी उनका प्रवाह अलग और मेरा प्रवाह अलग ऐसा अपने पराये का भाव मन में कहीं न कहीं बहते रहा,( जैसा आज भी अधिकांश हिन्दू मन में रहता है)।
फलस्वरूप बोलने को हिन्दू धर्म को महान बोलना किन्तु विचारों व कृति के स्तर पर कथित महान हिन्दू धर्म के मार्ग पर न जाते हुए जो मार्ग बुद्ध ने बताया उस मार्ग के विचारों/कार्यक्रमों की समाज को आवश्यकता है ऐसा बोलना, (क्योंकि उसके अतिरिक्त दूसरा कोई विकल्प ही नहीं है) इसलिए ऐसी कसरत करने को मजबूर होना पड़ता है इस कसरत में विसंगति है जो हो सकता है विवेकानंद के ध्यान में न आई हो शायद इसीलिए उनके विचार ऊहापोह की स्थिति में डालने वाले हो गए इसी प्रकार का वैचारिक ऊहापोह की स्थिति पैदा करने वाले लोग आज भी बड़ी संख्या में दिखाई पड़ जाते हैं। ऐसे लोग "विवेकानंद ग्रेट यानी हिन्दू धर्म ग्रेट" जैसे फंसाने वाले विधान रखते रहते हैं।
आदि शंकराचार्य को हिन्दू धर्म का संस्थापक माना जाता है, मजे की बात यह है कि हिन्दू धर्म के इस संस्थापक को भी "छुपा बौद्ध" कहा जाता है। ध्यान देने वाली बात यह है कि ऐसा मानने की प्रथा बौद्ध धम्म में थी ही नहीं तो वैदिक परंपरा की ही वह दृढ़ धारणा थी सैकड़ों वर्षों से चलती आई इस वैदिक धारणा का सीधा अर्थ ऐसा है कि "शंकराचार्य ने बहुत सी बातें बौद्ध धम्म से सीखीं" ऐसा होता है यह स्वयंसिद्ध है बाद के समय में उन्होंने जिस प्रकार बौद्ध धम्म के विरोध में युद्ध का शंखनाद करते हुए वैदिक परंपरा को संगठित किया उसके आधार पर " बौद्ध धम्म को नष्ट करने के लिए ही हिन्दू धर्म अस्तित्व में आया" यह भी सिद्ध होता है, बौद्ध धम्म के वैचारिक वातावरण में प्रारंभिक अंतर्संबंध के बावजूद उन्होंने उसके विरुद्ध कार्रवाइयां कीं, सैद्धांतिक स्तर पर वेदांत पर निष्ठा व्यकत की और प्रत्यक्ष व्यावहारिक स्तर पर वर्णाश्रम , जाति-व्यवस्था और अस्पृश्यता को प्रोत्साहन दिया। इसीलिए शंकराचार्य के बारे में विवेकानंद के विचार अच्छे नहीं थे।
अपने शिष्यों से चर्चा करते समय एक बार शंकाराचार्य का विषय निकलने पर स्वामी विवेकानंद ने कहा- शंकराचार्य की बुद्धि उस्तरे के धार की तरह तीक्ष्ण थी वे वाकपटु थे किन्तु उनके विचार उदार नहीं थे इसलिए उनका हृदय भी उसी तरह होने की संभावना है , ब्राह्मणों का ही नहीं उन्हें ब्राह्मण होने का भी बहुत अभिमान था,ब्राह्मणेतर जातियों को ब्रह्मज्ञान हो ही नहीं सकता यह बात उन्होंने वेदांत सूत्र के भाष्य में दृढ़तापूर्वक उल्लेख किया है, यह सब सिद्ध करने के लिए उनके द्वारा दिए गए कारण अत्यंत भयानक हैं।
विदुर का उल्लेख करते हुए उन्होंने लिखा है कि उनको इसलिए ब्रह्मज्ञान हुआ क्योंकि वे पूर्वजन्म में ब्राह्मण थे। मैं पूछता हूं यदि आज किसी शूद्र को ब्रह्मज्ञान हो गया तो तुम्हारे शंकराचार्य के मतानुसार ऐसा कहें कि पूर्वजन्म में वह ब्राह्मण था इसलिए उसे ब्रह्मज्ञान हुआ?
उनका अहिंसक मानवता वादी दृष्टिकोण ऐसा कि झगड़े में उन्होंने अनेकों बौद्ध श्रमणों को जलाकर मार डाला, शंकराचार्य के इन कार्यों को पाशविक ही कहना  होगा , इसके उलट बुद्ध देव के हृदय की महानता देखिए, *बहुजन हिताय बहुजन सुखाय* तो है ही किंतु एकाध बकरे का प्राण बचाने के लिए भी अपने जान की बाजी लगाने की उनकी तैयारी रहती थी, ऐसी उदारता होनी चाहिए,ऐसी दया होनी चाहिए --- जिसके कारण जीवों का कितना कल्याण हुआ उसपर ध्यान दीजिए, कितने आश्रम खोले गए, कितने विद्यालयों की स्थापना हुई, कितने सार्वजनिक अस्पताल , पशुशाला अस्तित्व में आये, स्थापत्य, शिल्पकला का कितना विकास हुआ , बुद्ध देव के पहले इस देश में था ही क्या ? भोजपत्रों पर लिखकर रखे हुए कुछ धार्मिक सिद्धांत और वह भी कुछ मुट्ठी भर लोगों को ही जानकारी कि उसमें है क्या ?
एक अर्थ ऐसा भी कि वही सब वेदांत की स्फुरणमूर्ति थे।
कितनी विस्मयकारी घटना है की जिन वेदांत के तत्वज्ञान का गौरव विवेकानंद कर रहे हैं उस तत्वज्ञान का प्रेरणास्रोत वे बुद्ध को मान रहे हैं। परंतु विवेकानंद के ये शब्द जैसे के तैसे लेने की जरूरत नहीं है क्योंकि बुद्ध के तत्वज्ञान से वेदांत का तत्वज्ञान बिल्कुल अलग है।
वेदांत यह आत्मा, परमात्मा,ब्रह्म,ब्रह्मविद्या, की अगम्य चर्चा करने वाला और उसे ही ज्ञान समझने वाला  कल्पना विलास पर आधारित परालौकिक सिद्धांत है वहीं बुद्धिज्म यह अनुभव के आधार पर प्रतिष्ठित लौकिक तत्वज्ञान है, मृत्यु के बाद मनुष्य को मोक्ष मिलेगा कि नहीं इसकी चिंता वेदांत करता है, बौद्ध तत्वज्ञान मनुष्य के मृत्यु तक के जीवन (मनुष्य व अन्य प्राणियों सभी के लिए) दुख का निवारण करते हुए आनंददायक जीवन कैसे जिया जा सकता है इस संबंध में सम्यक दिग्दर्शन करता है।
उनकी विवेचना का निहितार्थ यही है कि वे भारतीय संस्कृति के निर्माण में बुद्ध के योगदान को अन्य किसी की भी अपेक्षा सबसे महत्वपूर्ण और मूलभूत मानते थे बाकी लोगों को दूसरे तीसरे चौथे स्थान पर रखते थे यह स्पष्ट होता है।
कहीं कहीं विवेकानंद ने बुद्ध धम्म पर भी टिप्पणी की है बहुत से लोग इसी आधार पर विवेकानंद बौद्ध धम्म के विरुद्ध (यानी हिन्दू धर्म के नायक थे) ऐसा प्रतिपादित करते हैं परन्तु इस विषय की गहराई में जाने पर अलग ही जानकारी मिलती है सच्चाई यह है कि स्वामी विवेकानंद ने बौद्ध धम्म के सिद्धांतों पर टिप्पणी न करके बीच के समय मेंअनेक कारणों से बौद्ध धर्म को जो स्वरूप प्राप्त हुआ उस टीका की है।
अमेरिकी शिष्या श्रीमती ओली बूल को 5 मई 1897को भेजे पत्र में स्वामीजी लिखते हैं----  मुझे पूरा विश्वास हो गया है लोग जिसे आज का हिन्दू धर्म कहते हैं वह दूसरा तीसरा कुछ नहीं विकृति प्राप्त बौद्ध धम्म ही है, हिन्दुओं को यह बात स्पष्ट रूप से समझनी होगी यदि वैसा हुआ तो ज्यादा कुछ न करके उन विकृतियों को छोड़ देना उनके लिए सुविधा जनक होगा,*"बुद्ध द्वारा उपदेशित पूर्व का जो बौद्ध धम्म है उसके लिए और स्वत: बुद्ध के लिए मेरे मन में अत्यधिक आदर है।
मृत्यु के दो साल पहले 29 मई 1900 को सैनफ्रांसिस्को में दिए गए भाषण में विवेकानंद कहते हैं--- राजाओं ने यदि उपनिषदों को खोजकर निकाला अथवा रचना की फिर भी वह पुरोहितों के हाथ में थे,मात्र उपनिषदों के बहुत थोड़े से राज्य थे,जिसके कारण पुरोहितों व राजाओं का संघर्ष अटल था इस संघर्ष में बौद्ध धम्म के बीज हैं, बौद्ध धम्म ने सभी जातियों सभी पंथों को बाहर कर दिया, बौद्ध धम्म ने राजा और पुरोहितों द्वारा निर्मित जनता की श्रृंखला को तोड़ डाला इस प्रकार भारत में महान धार्मिक संकल्पना अस्तित्व में आई, परंतु अभी भी उसका प्रचार व प्रसार होना बाकी है बिना इसके प्रसार के कोई भी हित होनेवाला नहीं है।
और भी एक जगह विवेकानंद लिखते हैं कि बुद्ध देव के जीवन का अनुशीलन करने पर यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि यदि किसी व्यक्ति को किसी ईश्वर पर कतई विश्वास न हो, किसी भी सिद्धान्त की तरफ कोई लगाव न हो अथवा उसने किसी भी धर्म संप्रदाय की दीक्षा न ली हो, वह किसी भी मंदिर में देव-दर्शन के लिए न जाता हो अधिक क्या वह बाहर से नास्तिक या जड़वादी दिखता हो फिर भी वह उस चरम अवस्था को प्राप्त करने में समर्थ हो सकता है इसमें कोई शंका नहीं है।
उनके अपूर्व हृदय का मुझे लाखवां हिस्सा भी प्राप्त हुआ होता तो मैं खुद को धन्य मानता।
इन सभी चर्चाओं से क्या निष्कर्ष निकालें? विवेकानंद वास्तव में मन से किस विरासत को चला रहे थे?
*क्रमशः*

*हिन्दू धर्म की या बौद्ध धम्म की?*
*बुद्धिज्म ही भारतीय संस्कृति की लोकधारा*
*(मराठी)*
    *अर्थात*
*मेन स्ट्रीम*
*लेखक - संदीप जावले*
*हिन्दी अनुवाद*
*चन्द्र भान पाल*
*7208217141*

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